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निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम में समावेशन के बिंदु

By Malay Nirav 

आखिर ऐसा क्या मैं RTE दस्तावेज में पढ़-देख या फ़िर समझने का प्रयत्न कर लिया कि यह कहने के लिए बाध्य हो गया, "पूरा का पूरा RTE,2009 ही बहिष्करण का साधन है।" मैं यहां कैसे पहुंचा, आइए एक एक कर देखते हैं।

मुझे कक्षा में प्रस्तुति के लिए टॉपिक मिला था 'RTE, 2009 में समावेशन के स्थान-बिंदु'। इस विषय पर पढ़ना शुरु किया था, उठाया था मौलिक सामाग्री भारत सरकार द्वारा पारित अधिनियम RTE, 2009 का पीडीएफ जो कि 2012 में हुए संशोधन को भी समाहित किए हुआ था। अधिनियम का शीर्षक है,' निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009' (हिंदी में) । इस शीर्षक में 'बाल' शब्द को देखकर मैं रुक गया, सोचने पर मजबूर हुआ कि सिर्फ़ बाल ही क्यों? बाल शब्द सरकारी कार्यकलाप में दो भाव के साथ प्रयुक्त होता है, जो सरकारी अंतर्द्वंद्व को दिखाता है। आगे इस पर चर्चा करते हैं कि कैसा सरकारी अंतर्द्वंद्व? हालांकि बाल शब्द को अधिनियम में परिभाषित किया गया है जिसमें बालक या बालिका दोनों को इस शब्द में समाहित किया गया है, लेकिन फ़िर से एक लेकिन यहां आ जाता है- बालक और बालिका के अलावा जो तीसरा जेंडर है वह कहां गया? क्या इस तीसरे जेंडर में विद्या को ग्रहण करने वाले जन्म नहीं लेते या फ़िर इस समाज में 6-14 वर्ष की आयु सीमा ही नहीं आती, वो सीधे बड़े हो जाते हैं। हो जाते हैं 15 साल के, किसी चौराहे पर खड़े होकर, ताली बजाकर आशीर्वाद देने वाले। और जो आशीर्वाद दे सकते हैं उन्हें पढ़ने-लिखने की क्या ही जरूरत!

"बालक" से छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु का कोई बालक या बालिका अभिप्रेत है। - (RTE अधिनियम, 2009; अध्याय 1, धारा 2)

मैं तो उठाया था इस अधिनियम को कि इसमें खोजूं कुछ समावेशन के क्षेत्र को लेकिन आँख उठाते ही बंद करने की स्थिति आ गयी। पहले शब्द (बाल) से ही बहिष्करण की बू महक उठी थी। इसे शीर्षक से हटकर परिभाषा में खोजने गया तो अन्दर एक और बहिष्करण का स्तर मिल गया। मुझे ऐसा महसूस होने लगा कि जैसे मैं बहिष्करण के दस्तावेज में समावेशन को खोजने का प्रयत्न करने जा रहा हूं। लेकिन वह समावेशन भी खुद में बहिष्करण को ही समेटे रहेगा, बहिष्करण के बीज से उपजा समावेशन!

'बाल' शब्द पर ही अभी रुका हूं। मैंने सोचा कि चलो देखते हैं अधिनियम के अंग्रेजी संस्करण में क्या लिखा हुआ है। लिखा था 'The Right of Children to Free and Compulsory Education (RTE) Act, 2009' चिल्ड्रेन जो कि खुद में समेटे हुए है हर एक लिंग को। इसे पढ़ने के बाद ऐसा लगा कि बहिष्करण की खुशबू को हिंदी भाषा में फैलने का स्कोप ज्यादा है बनिस्पत अंग्रेजी भाषा के। लेकिन क्या बहिष्करण का स्कोप खत्म हो जाता है, अंग्रेजी वाले पीडीएफ़ में। संभवतः नहीं! आगे देखेंगे इस अधिनियम के अध्याय-धारा-उपधारा-अनुसूची में कि कैसे एक समावेशन का साधन बदलता जाता है बहिष्करण के हथियार में।

शीर्षक का 'बाल' शब्द अभी भी मेरे विवेचन की सीमा रेखा पर ही स्थिर है। आखिर मैं बाल शब्द को देखकर रुका कैसे? मेरे चिंतन में यह शब्द क्यों खटका? इसके पीछे है पिछली कक्षा में पढे हुए, मेरे शिक्षक द्वारा पढाये गए जेंडर पाठ। कुछ इस तरह से हमलोगों को जेंडर पढ़ाया गया है कि लैंगिक असमानता के ऐसे सूक्ष्म स्तर भी हमें दिख जाया करते हैं। ऐसे स्तर परम्परागत सीढ़ी के माध्यम से हमारे अन्दर कुछ ऐसे घुसपैठ किए रहते हैं कि एक जागरूक व्यक्ति भी इससे बच नहीं पाता है। अनजाने ही सही उसके चिंतन के स्तर पर धीरे-धीरे बहिष्करण के बीज पनपते रहते हैं। 

इस बाल शब्द की अपनी एक कहानी है जो कि शासन के अंतरद्वंद्व या फ़िर दोहरे चेहरे को उजागर करती है। लेकिन कैसे, आइये देखते हैं। 

बात उस समय की है जब SEP( विद्यालय अनुभव कार्यक्रम ) के तहत हम छात्र-शिक्षक को स्कूल दिए जा रहे थे। मुझे मिला था ' सर्वोदय बाल विद्यालय '। हर एक की तरह मैं भी चाहता था कि कोई बालिका स्कूल नहीं तो कम से कम बालक-बालिका दोनों की उपस्थिति वाला स्कूल मिले जिससे कि हमारा शिक्षण कार्य कम दुरूह हो। जहां सिर्फ़ बालक होंगे, वहां पढाना थोड़ा मुश्किल होगा, खुद के सृजित अनुभव से हमलोग यह सोच-समझ पा रहे थे। लेकिन बाल शब्द से क्या अर्थ लें, इस दुविधा में हमलोग फंसे थे। समझ नहीं पा रहे थे कि बाल में बालक और बालिका दोनों होंगे या सिर्फ़ बालक। इसकी तलाश में मैं गूगल से लेकर अपने सहपाठी सबसे पूछा लेकिन किसी एक निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया। इसके जवाब के लिए अब उस दिन का इन्तज़ार करने लगा जब हमें स्कूल जाना था। उम्मीद थी कि कुछ सकारात्मक खबर मिलेगी। लेकिन आशा स्कूल पहुंचकर निराशा में तब्दील हो गयी थी। स्कूल था केवल लड़कों का, शुद्ध लड़कों का। रूह कांप उठी हो, ऐसा तो नहीं हुआ था लेकिन एक चीज हमलोग समझ गये थे कि बाल का अर्थ अब से सिर्फ़ बालक ही लेना होगा। अनुभव से प्राप्त इस ज्ञान को तब झटका लगा जब सरकारी स्कूल का बाल शब्द शासक द्वारा पारित इस अधिनियम (RTE ) में देखा, जहां इसे दोनों लिंग के लिए उपयोग में लाया गया था। क्या यह शासक वर्ग का अंतर्द्वंद्व या फ़िर अंतर्विरोध नहीं है कि वह बाल शब्द को दो तरह से इस्तेमाल करता है। क्या यह समाज और सरकार के चिंतन में व्याप्त जेन्डर भेदभाव को नहीं व्यक्त कर रहा है ? इस सोच द्वारा निर्मित कानून कितना प्रासंगिक हो सकता है?

बात कोई 100 साल से ज्यादा पहले की होगी। तब हम गुलाम हुआ करते थे। हमारे जननायक, स्वतंत्रता सेनानी जिसमें गोखले से लेकर गांधी और अन्य अनेक महापुरुष शामील थे की अंग्रेजों से मांग थी कि प्राथमिक शिक्षा का सार्वभौमिकरण हो। 6 से 14 वर्ष के हर एक बालक-बालिका को निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार हो। तब हम गुलाम थे, और हम जिनके गुलाम थे उनसे हमारी यह मांग थी। आज हम आज़ाद हैं और हमारा देश जनतांत्रिक, लोकतांत्रिक देश है। खुद का शासन, खुद पर है। अगर गांधी जिन्दा होते तो क्या वह आज भी यही मांग कर रहे होते या फ़िर कुछ और। मैं समझता हूं कि गांधी आज आठवीं तक की पढ़ाई को मौलिक अधिकार नहीं कह रहे होते बल्कि हर तरह, हर उम्र की पढ़ाई को विद्यार्थी का मौलिक अधिकार मानते और इसके लिए सत्ता को निःशुल्क व्यवस्था करने हेतु बाध्य कर रहे होते। आखिर ऐसी क्या मजबूरी है जो हम RTE, 2009 को लेकर ही खुश और आश्वस्त हो जायें और आगे की ओर देखना छोड़ दें ? मेरी तो कोई मजबूरी नहीं है। जहां तक मेरी नजर पहुंचेगी वहां तक मैं देखूँगा और आपको भी दिखाने का प्रयत्न करूंगा।

कृष्ण कुमार एक टीवी इंटरव्यू में जिक्र कर रहे थे गांधीवादी चिंतक मार्जरी साईक की जो उन्हें अपने देश ब्रिटेन में दौरा का मतलब समझा रही थी। जब कोई ब्रिटिश अधिकारी किसी स्कूल में दौरा पर आते थे तो वहां के शिक्षक छत के छेद, जमीन के गढ्ढे सबको सफ़ेद चॉक से घेर देते थे ताकि अधिकारी की नजर में सब खामियां आ जाए और जब वो वापस जायें तो इसका समाधान लेकर आए। इसके बाद कृष्ण कुमार कहते हैं कि लेकिन अपने देश में क्या होता? जब कोई सरकारी अधिकारी दौरा पर आते हैं तब शिक्षक सहित सारा स्कूल प्रशासन अपनी कमियों को ढक लेते हैं। छिपा लेते हैं अपनी कमियों को ताकि शिक्षा अधिकारी के प्रकोप से बच सकें। दोनों जगह की सोच में यह अंतर ही शिक्षा व्यवस्था में अंतर का आधार है। कृष्ण कुमार द्वारा बताए गए इस घटना का उल्लेख यहां मैं क्यों कर रहा हूं, संभवतः आप यह सोच रहे होंगे। इसका जिक्र मैं यह समझाने के लिए कर रहा हूं कि आज के समय में RTE, 2009 भी शासक की अपनी व्यवस्थागत खामियों को ढकने का एक साधन है, पर्दा है। जो चीज आज सामान्य होनी चाहिए थी उसको मौलिक अधिकार जैसे बड़े शब्द दिए जा रहे ताकि इस मौलिक अधिकार से भी बड़ा कुछ और हो, इसकी कल्पना तक हम न कर सकें। आखिर एक मौलिक अधिकार से ऊँचा क्या हो सकता है!

मेरी नजर में प्राथमिक शिक्षा को मौलिक अधिकार का सिर्फ़ जामा पहनाया गया है। मैं इसे जामा क्यों कह रहा हूं, आइए देखते हैं। क्या ऐसा कोई अधिकार, मौलिक अधिकार, हमारे पास है जो एक विशेष खंड, समय काल के लिए दिया गया हो। RTE में 6-14 वर्ष तक यानी कि 8 साल के लिए शिक्षा का मौलिक अधिकार दिया गया है। इतने कम समय तक के लिए दिए गए अधिकार को हम मौलिक अधिकार का नाम कैसे दे सकते हैं। क्या इसे हम यह कह सकते हैं, "8 वर्षीय मौलिक अधिकार" या फ़िर "खंडित अधिकार"!

मान लीजिए अगर कहा जाए कि आप जब चौदह साल के हो जायेंगे तब आपको अपने जिला से दूसरे जिला, जैसे मुझे बेगूसराय से गया, जाने के लिए वीजा और पासपोर्ट बनाना होगा। और फ़िर इसके बाद यह कहा जाए कि इन 14 सालों तक पूरे देश में निर्बाध घूमने देने की वजह से हमें संविधान में "देश में कहीं भी भ्रमण करने का मौलिक अधिकार" दिया गया है तो क्या आप इस बात से सहमत हो सकेंगे। क्या आपको यह सुनकर ताज्जुब नहीं होगा कि कैसे 14 वर्ष तक देश में कहीं भ्रमण करने की आज़ादी देने के बाद इसे मौलिक अधिकार कहा जा सकता है। लेकिन "शिक्षा का मौलिक अधिकार" को 14 वर्ष की आयु तक सीमित कर देने के बाद भी हमें कोई अचंभा नहीं होता है, आखिर क्यों ? क्या हम संतोषी हैं या फ़िर सहज ढंग से भ्रमित होते जा रहे हैं! जिस देश की औसत आयु लगभग 68 साल है, वहां केवल 6 से 14 वर्ष तक की निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा को शिक्षा का मौलिक अधिकार नाम दिया जा रहा है।

विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थी के साथ ही समाज के अन्य अलग थलग पड़े हुए हिस्से का भी समावेशीकरण जरूरी है। समावेशीकरण की प्रक्रिया शासक और समाज दोनों द्वारा साथ मिलकर चलाया जाना चाहिए। जैसे सर्व शिक्षा अभियान हो या फ़िर मिड डे मील जैसी योजना जिसके माध्यम से सरकार शिक्षा का सार्वभौमिकरण करने का प्रयास करती है, को जब समाज का सहयोग मिलता है तब ये योजनाएं और निखर कर सामने आती हैं। यह सार्वभौमिकरण ही समावेशीकरण है। लेकिन कभी कभी हमें देखने को मिलता है कि समावेशीकरण की यह प्रक्रिया बहिष्करण का शक्ल धारण कर लेती है। इस वजह से स्कूल में दाखिला लिया सामान्य विद्यार्थी विशेष बनकर स्कूल से बहिष्कृत हो जाता है। ऐसे छात्रों/छात्राओं को ड्रॉप आउट छात्र की संज्ञा दी जाती है, हालाँकि वास्तव में वह होता है पुश आउट, संस्था द्वारा बाहर किया गया विद्यार्थी। आखिर कैसे ? आइए इसे कृष्ण कुमार के आलेख "अशोक की कहानी " के अंशों के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं। वैसे यह समझना क्यों आवश्यक है? जब हम RTE, 2009 के उपबंधों को धरातल पर लाने का प्रयास कर रहे होंगे तब इसके माध्यम से हम सीख पाएंगे कि कहां और कितना सजग रहना है ताकि RTE अपने मूल ध्येय में सफ़ल हो सके।

नोट: मेरे आलेख में जहां-जहां आपको ऐसा लगे कि यहां मैं RTE के माध्यम से होने वाले समावेशीकरण का जिक्र कर रहा हूं, वहां-वहां आपको बस इतना याद कर लेना होगा कि यह समावेशीकरण की प्रक्रिया आठवीं कक्षा के बाद या तो पूर्णतः या फ़िर अंशतः ठहर जाने वाली है।

"बाल अनुकूल और बालकेंद्रित रीति में क्रिया-कलापों, प्रकटीकरण और खोज के द्वारा शिक्षण।" - (RTE अधिनियम, 2009; अध्याय 5, धारा 29, उपधारा 2)

"अशोक की कहानी" में कृष्ण कुमार अशोक नाम के बालक के शैक्षिक जीवन के संघर्ष की कहानी बताते हैं। अशोक पहली पीढ़ी का छात्र है। उसके पिता किसान हैं। मुश्किल से घर का खर्चा चलता है। उसके द्वारा बार बार जिद करने के बाद ही पिता ने उसे स्कूल में भर्ती करवाया था। उसका स्कूल पहुँचने का संघर्ष आगे चलकर स्कूल में टिके रहने के संघर्ष में तब्दील हो जाता है। पहले दर्जे में उसे शिक्षिका कई हफ्तों तक रट रट कर वर्णमाला और शब्द निर्माण सिखाते रहे। अशोक इतना समझ गया था कि क का मतलब होता है कबूतर। वह कबूतर को क, बू, त, र का योग नहीं समझता था। इस तरह पहले दर्जे में अनेक नये चीजों को सीखकर वह बहुत खुश था। लेकिन जब वह दूसरे दर्जे में गया, और उसे वहां किताब पढ़ने दिया गया तब उसके पढ़ने के तरीके को देखकर शिक्षिका बहुत नाराज होती थी। उसे हमेशा डांट मिलती थी। वह कुछ ऐसे पढ़ता था। ' कबूतर का क, मटर का म, लँगूर का ल, क-म-ल।' डांट खाते खाते उसका दूसरा दर्जा भी निकल गया लेकिन पहले दर्जे का रटा हुआ तरीका भूल कर नये ढंग से पढना वह नहीं सीख पाया। तीसरे दर्जे में आने पर वह सोचने लगा था कि जल्दी से सारी पढ़ाई पूरी कर पैसा कमाएगा। लेकिन जब उसे भूगोल में यह पढ़ाया गया कि उसका जिला पहाड़ों पर है तो वह हैरान रह गया। वह सोच रहा था कि उसके पास तो समतल खेत है जिसमें धान होता है। अब वह इसे कैसे याद करे। यह सब हो ही रहा था कि इस बीच में उसकी शिक्षिका उसे भोंदू समझ कर उससे बात करना बंद कर दी। अब वह कटा कटा रहने लगा था। उसे स्कूल में कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। दिवाली की छुट्टी के बाद अशोक वापस से स्कूल नहीं गया। अब वह घर के कामों में ही हाथ बटाने लगा। कुछ समय बाद उसके गाँव में सरकारी सर्वेक्षण शुरु हुआ जिसमें यह पता लगाना था कि छात्र बीच में ही स्कूल क्यों छोड़ देते हैं। उसका स्कूल छोड़ने का कारण लिखा गया था आर्थिक तंगी ! क्या सच में आप भी इसी को असली वजह मानते हैं? 

RTE, 2009 कहता है कि शिक्षण बाल केंद्रित होना चाहिए। लेकिन क्या अशोक का शिक्षण बाल केंद्रित था? इसलिए इस कहानी को जानना हमारे लिए आवश्यक है, ताकि हम समझ सकें कि RTE में सिर्फ़ लिख देने भर से समावेशीकरण प्रारंभ नहीं हो जाता है। उसे धरातल पर लाना हम सबकी जिम्मेदारी है। हम देखते हैं कि कैसे एक सामान्य बालक अशोक भी लापरवाही का शिकार हो अलग थलग हो जाता है और शिक्षा छोड़ने पर मजबूर हो जाता है।

आप सोच रहे होंगे कि मैं आठवीं तक की निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा के महत्व को कम करके देख रहा हूं। झूठ का बस हंगामा खड़ा करना चाहता हूं। लेकिन ऐसा नहीं है। सिर्फ़ कोरी बहस नहीं खड़ा कर रहा हूं यह कह कर कि आठवीं के बाद विद्यार्थियों से शिक्षा का मौलिक अधिकार छीन लिया जाता है। इसके पीछे SEP के तहत प्राप्त किया हुआ अनुभव भी है जहां मैंने देखा है कि एक छात्र को कैसा लगता जब वह आठवीं कक्षा से नौवीं कक्षा में प्रवेश करता है और खुद को कुछ चीजों से वंचित पाता है।

विद्यार्थी के 14वां जन्मदिन के बाद या फ़िर आठवीं कक्षा के बाद जब हम उनसे उनका शिक्षा का यह मौलिक अधिकार छीनते हैं तब उन्हें कैसा लगता होगा? जो छात्र आठवीं तक की शिक्षा एक संवैधानिक सहारे से प्राप्त किया हो वह अचानक से इतना समर्थ कैसे बन सकता है कि आगे की पढ़ाई के लिए उसे अपने पैरों पर खड़े होकर करने के लिए छोड़ दिया जाता है। इस बेसहारा कर देने के दर्द को हम कुछ इस तरह समझ सकते हैं। मिड डे मील जिसका जिक्र RTE में किया गया है, लेकिन अनुसूची के तहत, वह भी कक्षा आठ तक ही छात्रों को दिया जाता है। क्या नौवीं के छात्रों को भूख नहीं लगती या फ़िर वे या उनका परिवार आठवीं कक्षा के बाद किसी जादू की वजह से अचानक अमीर और समर्थ हो जाते कि उन्हें सरकारी मील की जरूरत नहीं रह जाती है या फ़िर विद्यार्थी की अंत: प्रेरणा इतनी मजबूत हो जाती है कि उन्हें स्कूल आने के लिए किसी बाह्य प्रेरणा की आवश्यकता नहीं रह जाती है। इसमें से अगर किसी को भी सत्य मान लें तो उसे क्या कहेंगे जो मैं SEP में देखकर आया हूं। आइए जानते हैं SEP के मेरे अनुभव को। स्कूल में लंच ब्रेक होता था और छोटे-छोटे बच्चे अपना अपना खाली लंच बॉक्स लेकर मिड डे मील की ओर दौड़ जाते थे। छात्र खाना ले रहे थे कि मेरी नजर एक शिक्षक की ओर जाती है जो मिड डे मील की व्यवस्था देख रहे थे। वो कुछ छात्रों को डांट रहे थे और उन्हें वापस जाने के लिए कह रहे थे। मैं माजरे को समझ नहीं पाया। पूछा तो पता चला कि नौवीं और उसके ऊपर की कक्षा के छात्र हर दिन छिप कर मील लेने आ जाते हैं। कभी सफ़ल हो जाते तो कभी उनकी चोरी पकड़ी जाती है। समझते देर नहीं लगी कि मिड डे मील आठवीं तक ही मान्य है। आठवीं पास कर नौवीं में गए छात्र इस नई व्यवस्था को आत्मसात नहीं कर पाते, विद्रोह कर उठते हैं। कभी चोरी छिपे तो कभी लड़ झगड़ कर मील प्राप्त करने का सतत प्रयास करते रहते हैं। आखिर वो कैसे अपना ले इस कुत्सित सत्य को कि वे कल तक भोजन के पात्र थे और आज से नहीं। क्या वे इतने बड़े हो गए, इतने सक्षम हो गए कि या फ़िर इतने अभागे कि मील नहीं ले सकते हैं। हालांकि बाद में बच जाने पर उन्हें बुलाकर खाना दिया जाता था।

समावेशी शिक्षा जो कहता है कि जाति या किसी भी अन्य आधार पर विद्यार्थियों के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन मिड डे मील के बहाने हमने देखा कि कैसे RTE 2009 एक अलग तरह की जाति को गढ़ रहा है जो कि बहिष्करण का नया आयाम बनता जा रहा है। वह जाति है 14 वर्ष तक के विद्यार्थी और 14 वर्ष के बाद के विद्यार्थी की जाति या फ़िर कह सकते हैं आठवीं कक्षा तक की एक जाति और आठवीं के बाद की एक अलग जाति। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं... मिड डे मील वाली जाति और बिना मिड डे मील वाली जाति।

"शिक्षा का माध्यम, जहां तक साध्य हो बालक की मातृभाषा में होगा।" - (RTE अधिनियम, 2009; अध्याय 5, धारा 29, उपधारा 2)

RTE 2009 के अध्याय 5 में बात किया गया है 'प्रारंभिक शिक्षा का पाठ्यक्रम और उसका पूरा किया जाना' पर। इसमें कहा गया है कि संविधान में प्रतिष्ठापित मूल्यों के अनुरुप पाठ्यक्रम को बनाया जाएगा। गांधी जी के अनुसार ही RTE में भी शिक्षा के माध्यम से बालक और बालिका के सर्वांगीण विकास का लक्ष्य रखा गया है। RTE के धारा 29 के अनुसार जहां तक साध्य हो, बालक को मातृभाषा में शिक्षा दिया जायेगा। जहां तक साध्य होगा, यह सत्ता को 'साध्य नहीं है' के पीछे छुपने का मौका देती है। मातृभाषा अपवाद स्वरुप ही शिक्षण का माध्यम बन पाती है।  

एक कहानी के माध्यम से हम समझने का प्रयास करते हैं कि जहां तक साध्य हो वाली मंशा से किस तरह बहिष्करण का स्कोप बन जाता है।

दो बच्चे अलग-अलग पृष्ठभूमि वाले परिवार में जन्म लेते हैं, झारखंड राज्य के ही किसी दो अलग भाग में। लड़का का जन्म होता है छोटानागपुर के गांव में जहां उसकी मातृभाषा मंडारी होती है, वहीं लड़की का जन्म होता है रांची में जहां उसकी मातृभाषा हिंदी होती है। लड़का खेत, नदी, पहाड़, जंगल में खेलते कूदते बड़ा होता है वहीं लड़की तरह तरह के आधुनिक खेल खेलते हुए, टीवी, पत्रिका को देखते-पढ़ते-सुनते हुए बड़ी होती है। लड़की 5 साल के होते ही एक बेहतरीन सरकारी स्कूल में दाखिला लेती है, जहां शिक्षक उसे तरह-तरह के हिंदी की कहानी, कविता सुनाते जिसे वह चाव से पढ़ती है। वहीं दूसरी ओर लड़का जो कि यह समझने लगता है कि कौन बकरी दूध पिलाती है, कौन सींग मारती है तथा वह अपने से बड़ों को 'जोहार' कहता है, को अचानक से उसके माता-पिता स्कूल में दाखिला दिला देते हैं। जहां शिक्षिका उसका परिचय हिंदी के अक्षरों से करवाती हैं और तरह तरह के हिंदी की कविता, कहानी सुनाती जिसे वह नहीं समझ पाता है। शिक्षिका उसे 'जोहार' के जगह नमस्कार करने को कहती है जो उसे अजीब लगता है। अब वह दो अलग तरह के वातावरण में जीना शुरु करता है। उसे स्कूल में घुटन होती, खुद को कैदी सा महसूस करता वहीं दूसरी ओर लड़की को स्कूल की भाषा और परिवेश अपना-सा लगता है। 
धीरे-धीरे लड़का का स्कूल और औपचारिक शिक्षा से अजनबीपन बढ़ता जाता है और वह चुपके से वापस अपनी नदी और बकरी के बीच ही हमेशा के लिए लौट आता है। उसे समाज नकारा और अशिक्षित घोषित कर देता है। दूसरी तरफ लड़की औपचारिक शिक्षा में सफ़ल होती जाती है। इस तरह हम देखते हैं कि 'जहां तक साध्य हो' के कारण दो अलग पृष्ठभूमि के बच्चे एक ही तरह की शिक्षा व्यवस्था में प्रवेश करते हैं। जहां एक सफ़ल होता, वहीं दूसरे को शिक्षा व्यवस्था वापस खेत में धकेल देता है। हालाँकि उसे खेत में ज्यादा सुकून महसूस होता है लेकिन समाज के तय मानक में वह जीवन में असफ़ल रह जाता है। इस तरह RTE के शब्द-समूह "जहां तक साध्य हो" उसके लिए बहिष्करण का साधन बन कर ही आता है।


"बालक के समझने की शक्ति और उसे उपयोग करने की उसकी योग्यता का व्यापक और सतत मूल्यांकन।" - (RTE अधिनियम, 2009; अध्याय 5, धारा 29, उपधारा 2) 

"रोकने और निष्कासन का प्रतिषेध- किसी विद्यालय में प्रवेश प्राप्त बालक को किसी कक्षा में नहीं रोका जाएगा या विद्यालय से प्राथमिक शिक्षा पूरी किए जाने तक निष्काषित नहीं किया जाएगा।" - (RTE अधिनियम, 2009; अध्याय 4, धारा 16)

RTE 2009 के अध्याय 5 की धारा 29 की उपधारा 2 (ज) बात करती है बालक/बालिका की योग्यता का सतत और व्यापक मूल्यांकन हो। छात्रों को यह केवल अंकों के आधार पर नहीं आंकता है और उन्हें पास और फ़ेल के जंजीर और रैंक में नहीं बाँधता और बांटता है बल्कि उनका समग्र और व्यापक आकलन करता है। आकलन की यह पद्धति समावेशन की प्रक्रिया को मजबूत कर सकती है बर्शते इसे सही और व्यवस्थित ढंग से लागू किया जाए। आइए इसे एक घटना से समझने का प्रयास करते हैं कि आखिर सतत और व्यापक आकलन की जरूरत क्यों है और इसे RTE ,2009 अपनाने के लिए क्यों कहता है।

एक प्राथमिक विद्यालय में कक्षा 4 के बच्चों को पर्यावरण अध्ययन के अन्तर्गत उनकी पाठ्यपुस्तक के जल से संबंधित अध्याय पर आधारित एक टेस्ट लिया जाता है। तीस बच्चों में से अधिकतर बच्चों ने 10 में से 6 अंक प्राप्त किए। दो बच्चे जिनमें से मैथिली के 8 और रमन के 3 अंक आए। अध्यापक ने कक्षा में जब अंक बताए, सभी बच्चे रमन का अंक सुनकर हँसे, और उसे चिढाना शुरु कर दिए। कोई उसे फेलू तो कोई उसे भोंदू कहकर चिढ़ा रहे थे। उसे बेहद खराब महसूस हो रहा था। उस दिन के बाद वह कभी स्कूल नहीं गया। उसके माता-पिता के लिए उसे दूसरे स्कूल में जाने के लिए मनाना भी कठिन साबित हो रहा था।

अब कुछ सवाल सामने हैं। ये अंक अध्यापक, माता-पिता या रमन और मैथिली की शिक्षा से सरोकार रखनेवाले किसी भी को क्या बताना चाहते हैं? क्या ये अंक यह बता पाएंगे कि दोनों बच्चों ने क्या और कैसे सीखा और वे दोनों क्या क्या कर सकते हैं? क्या ये अंक अध्यापकों को बता पाएंगे कि मैथिली और रमन की जरूरतों के आधार पर उनके लिए अध्यापन और सीखने की प्रक्रिया में कैसे सुधार लाया जाए? ये और इन जैसे अनगिनत सवाल ही RTE में कहे गए "सतत और व्यापक मूल्यांकन" की आधार भूमि हैं।

"पुस्तकालय: प्रत्येक विद्यालय में एक पुस्तकालय होगा, जिसमें समाचारपत्र, पत्रिकाएँ और सभी विषयों पर पुस्तकें, जिनके अंतर्गत कहानी की पुस्तकें भी हैं, उपलब्ध होंगी।" - (RTE अधिनियम, 2009; अनुसूची, धारा 6)

अनुसूची में जिक्र है कि स्कूल में पुस्तकालय अवश्य होनी चाहिए। यहां विद्यार्थी को अपने साहित्य और संस्कृति से परिचित होने का अवसर मिलेगा। वे देश की विविधता से परिचित हो सकेंगे और एक दूसरे का सम्मान करना सीख सकेंगे जिससे समावेशीकरण की प्रक्रिया जीवन्त हो सकती है। RTE बात करती है पुस्तकालय होने की, पुस्तकालय के खुलने की, उसमें किताब और छात्र हो या न हो इसकी बात नहीं करता है। इसलिए स्कूल में लाइब्रेरी तो दिख जाया करते हैं लेकिन उस पर जड़े हुए ताला के साथ। SEP के तहत मिले स्कूल में भी हमें ऐसा ही देखने को मिला। खाली समय में मैं अक्सर लाइब्रेरी की ओर चला जाता था कि वहां बैठकर कुछ पढ़ लूँगा, लेकिन हमेशा दर्शन ताले की ही होती थी। छात्रों से पूछने पर कि वे कभी लाइब्रेरी जाते हैं तो जवाब अधिकतर न ही होता था। 4 महीनों के SEP में आखिर एक दिन मुझे लाइब्रेरी खुली मिल ही गई। मैं गया, करीने से सजे हुए लाइब्रेरी को देखकर हतप्रभ रह गया था। किताबों की कोई कमी नहीं थी, सब सुव्यवस्थित था, बोर्ड पर, दीवार पर तरह-तरह के रोचक चित्र और ज्ञानवर्धक कथन भी लटके हुए थे। लेकिन वहां कोई विद्यार्थी नहीं था। एक मैम थीं। उनसे पूछने पर कि यह हमेशा बंद ही दिखता है, वो कहने लगी कि ऐसा तो नहीं है। हां कभी कभार जब मुझे ऑफ़िस का काम होता या फ़िर किसी क्लास में ड्यूटी होती तब बंद रहता है। उनका कहना कितना सत्य था यह तो नहीं मालूम लेकिन नई किताबें खुद को न छुए जाने की गवाही दे रही थी। इतने करीने से किताब रखे हुए थे कि उनको निकालकर मैं पढूं, इसमें मुझे ही झिझक हो रही थी तो फ़िर छात्रों का क्या हाल होता होगा ! क्या वे टच करने की हिम्मत ला पाते होंगे। यह व्यवस्थित व्यवस्था डरावना था। कितना खूबसूरत होता अगर किताबें खुद को छूए जाने के लिए निमन्त्रण दे रही होतीं। कागज पर लिख देना कि लाइब्रेरी होनी चाहिए और उसे धरातल पर होने में जमीन पाताल का अंतर होता है!

"नि:शक्त बालक के अंतर्गत निम्नलिखित हैं- 
     (अ) नि:शक्त व्यक्ति ( समान अवसर, अधिकार संरक्षण और पूर्ण भागीदारी ) अधिनियम, 1995 की धारा 2 के खंड (झ) में यथापरिभाषित "नि:शक्त" कोई बालक" - (RTE अधिनियम, 2009; अध्याय 1, धारा 2)

"परंतु राष्‍ट्रीय स्‍वपरायणता, प्रमस्‍तिष्‍क घात, मानसिक मंदता और बहु-नि:शक्‍तताग्रस्‍त व्‍यक्‍ति कल्‍याण न्‍यास अधिनियम, 1999 (1999 का 44) की धारा 2 के खंड (ज) में निर्दिष्ट "बहु-नि:शक्‍तता" से ग्रस्त किसी बालक को और खंड (ण) में निर्दिष्ट "गम्भीर बहु-नि:शक्‍तता" से ग्रस्त किसी बालक को भी घर-आधारित शिक्षा का विकल्प अपनाने का अधिकार हो सकेगा।" - (RTE अधिनियम, 2009; अध्याय 2, धारा 3, उपधारा 3)

दिल्ली विश्वविद्यालय आने से पहले सहपाठी की परिभाषित चौहद्दी में कोई भी दिव्यांग छात्र मेरे मित्र नहीं रहे हैं। मित्र या सखा की सीमा से बाहर जाकर भी देखने से मुझे याद नहीं आता है कि कोई दिव्यांग विद्यार्थी स्कूल में दिखें हों। हालांकि मेरी स्कूली शिक्षा का आखिरी छह वर्ष प्राईवेट स्कूल में गुजरा था। मैं कह सकता हूं कि मेरे द्वारा व्यतीत 12 वीं कक्षा तक की शिक्षा में सामाजिक परिवेश का एक हिस्सा हमेशा छूटा रहा। WHO का डाटा कहता है कि पूरे विश्व की जनसंख्या का लगभग 16% दिव्यांगजन हैं। देश में इस हिसाब से कम से कम 19 करोड़ नागरिक दिव्यांग हैं। लेकिन हमारे जीवन के 100% व्यतीत हिस्से में क्या 16% हिस्सा दिव्यांगजन के सहयोग से गुलजार हुआ होगा ? संभवतः नहीं ही! 

बहुत जोर देने पर अपने बचपन की स्मृति में एक चित्र उभरकर सामने आ रहा है। एक गठीला बदन, गौर रंग शरीर, लंबी कद-काठी, खूबसूरती से रंग को दीवार पर बिखेर कर शादी के दृश्य को अंकित करती हुई उंगलियाँ, लेकिन बातें इशारों से। सुन और बोल नहीं सकते थे वे। जब वो आते थे तब मेरे लिए कौतुहल का विषय हुआ करते थे। समझ नहीं पाता था कि वे क्या बोल रहे लेकिन यह भी नहीं समझ पाता था कि दूसरे उन्हें कैसे समझ पा रहे हैं। घंटों वो बैठा करते थे। मेरी कभी हिम्मत नहीं हुई उनके पास जाने की। मैं हमेशा उन्हें दूर से ही निहारा करता था। वो जिन्दादिल इन्सान थे। वर्षों से मुलाकात नहीं हुई लेकिन RTE में विशेष आवश्यकता वाले छात्र हेतु किए गए उपाय को समावेशी शिक्षा के संदर्भ में पढ़ते हुए अचानक उनकी याद आ गयी। अब सोच रहा हूं कि बोले हुए शब्दों की दुनिया से वंचित वे कैसे रंगों के शब्दों से परिचित हुए होंगे ? कैसी रही होगी उनकी शिक्षा? शब्द को वे उकेर कर दीवार को सजा देते थे लेकिन उनकी जिन्दगी कैसे सजती होगी? 

आखिर मेरे स्कूली परिवेश से दिव्यांग छात्र का इस तरह बहिष्करण और अलगाव का कारण क्या रहा होगा? कारण अनेक होंगे लेकिन एक बात तो अब स्पष्ट है कि RTE, 2009 के आने के बाद से यह दूरियां कम हुई हैं। यहीं मुझे RTE के इस उपबंध की उपयोगिता समझ आ रही हैं, जहां विशेष छात्रों को शेष छात्रों के साथ ही पढ़ाने की बात की गई है। इससे समावेशीकरण की प्रक्रिया मजबूत होगी। सभी छात्र एक दूसरे से परिचित हो सकेंगे, एक दूसरे की जरूरत को समझ सकेंगे और मिलकर रहने के खूबसूरत एहसास, जिससे मैं 12 सालों तक वंचित रहा, को जी सकेंगे। साथ ही वह जगह जहां कुछ विशेष छात्रों को घर जाकर पढ़ाने की बात की गई है वह अपने आप में एक बेहतरीन कदम है। इससे हर एक छात्र/छात्रा तक शिक्षा पहुंच सकेगी। लेकिन बहु-नि:शक्‍त छात्रों के लिए उपलब्ध घर आधारित शिक्षा को बढाकर उच्च शिक्षा तक ले जाना चाहिए। उसे प्राथमिक शिक्षा तक ही सीमित कर देने से बहिष्करण का दर्द वापस लौट आता है।


"विद्यालय प्रबंध समिति-धारा 2 के खंड (ढ) के उपखंड (iv) में विनिर्दिष्ट किसी विद्यालय से भिन्न विद्यालय स्थानीय प्राधिकारी, ऐसे विद्यालय में 
प्रवेश प्राप्त बालकों के माता-पिता या संरक्षक और शिक्षकों के निर्वाचित प्रतिनिधियों से मिलकर बनने वाली एक विद्यालय प्रबंध समिति का गठन करेगा।" - (RTE अधिनियम, 2009; अध्याय 4, धारा 21)

अध्याय 4 का धारा 21 विद्यालय प्रबंध समिति की बात करता है। यह समिति स्कूल को समाज से जोड़ने की एक शानदार कड़ी है। स्कूल प्रबंधन के निर्णय प्रक्रिया में विभिन्न हितधारकों को जोड़कर यह स्कूल प्रशासन को लोकतांत्रिक स्वरुप देता है। विद्यार्थी-स्कूल और समाज के समावेशीकरण का यह अनोखा रुप है। इसमें 50% महिला सदस्य होती हैं। आइए देखते हैं कि कैसे इसकी वजह से स्कूल में समावेशीकरण हेतु विभिन्न द्वार खुलते हैं।

बात दक्षिण भारत के एक प्राथमिक स्कूल की है। जहां कुछ छात्र अक्सर अपना प्लेट घर पर छोड़ आते थे और इस बहाने से मिड डे मील लेने से खुद को बचा लेते थे। एक दिन विद्यालय प्रबंध समिति के कुछ सदस्य स्कूल आए हुए थे। उनकी नजर जब लंच में खाली हाथ बैठे छात्रों पर गई तो वे इसके पीछे की वजह जानने के लिए प्रयास करना शुरु किया। फ़िर उन्हें पता चला कि छात्र हर दिन खिचड़ी ही खिलाए जाने से ऊब गये हैं। इसलिए कोई न कोई बहाना कर खाने से बचते हैं। समिति ने स्कूल प्रशासन से मिलकर मील के लिए भोजन की एक सूची तैयार की और हर दिन कुछ न कुछ अलग भोजन देने का प्रयास किया। कभी खिचड़ी, कभी साम्भर, कभी अंडा, कभी चावल दाल। इस तरह करने से छात्र उत्साहित हो गए।अब वे हर दिन थाली लाते हैं, और मील और पढ़ाई दोनों का जमकर लुफ्त उठाते हैं। हमने देखा कि किस तरह समिति ने कुछ बच्चे के मील से अलगाव को दूर करने का प्रयास किया और वे सफ़ल हुए। इस प्रकार यह समावेशीकरण को बढ़ावा देने का साधन बना। मुझे महसूस होता है कि विद्यालय प्रबंध समिति के विचार को कॉलेज प्रबंध समिति तक लाने का प्रयास करना चाहिए।
अब फटाफट RTE, 2009 के उन धाराओं को हूबहू यहां दर्ज करते हैं जिससे कहीं न कहीं समावेशीकरण की प्रक्रिया मजबूत होती है, भले ही प्राथमिक स्तर तक ही क्यों नहीं। 


"ऐसे बालकों, जिन्हें प्रवेश नहीं दिया गया है या जिन्होंने प्रारंभिक शिक्षा पूरी नहीं की है, के लिए विशेष उपबंध।" - (RTE अधिनियम, 2009; अध्याय 2, धारा 4)

"अन्य विद्यालय में स्थानांतरण का अधिकार- स्थानांतरण प्रमाणपत्र जारी करने में बिलंब, ऐसे अन्य विद्यालय में प्रवेश के लिए बिलंब करने या प्रवेश से इंकार करने के लिए आधार नहीं होगा।" - (RTE अधिनियम, 2009; अध्याय 2, धारा 5, उपधारा 3)

" प्रवासी कुटुम्बों के बालकों के प्रवेश को सुनिश्चित करेगा।" - (RTE अधिनियम, 2009; अध्याय 3, धारा 9)

"समुचित सरकार द्वारा विद्यालय पूर्व शिक्षा के लिए व्यवस्था करना।" - (RTE अधिनियम, 2009; अध्याय 3, धारा 11)

"धारा 2 के खंड ढ के उपखंड (iii) और उपखंड (iv) में विनिर्दिष्ट कोई विद्यालय पहली कक्षा में, आसपास में दुर्बल वर्ग और अलाभित समूह के बालकों को, उस कक्षा के बालकों की कुल संख्या के कम से कम 25% की सीमा तक प्रवेश देगा और निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा, उसके पूरा होने तक, प्रदान करेगा।" - (RTE अधिनियम, 2009; अध्याय 4, धारा 12)

"किसी बालक को, आयु का सबूत न होने के कारण किसी विद्यालय में 
प्रवेश से इंकार नहीं किया जाएगा।" - (RTE अधिनियम, 2009; अध्याय 4, धारा 14, उपधारा 2)

"प्रवेश से इंकार न किया जाना- किसी बालक को प्रवेश से इंकार नहीं किया जाएगा यदि ऐसा प्रवेश विस्तारित अवधि के पश्चात ईप्सित है।" - (RTE अधिनियम, 2009; अध्याय 4, धारा 15)

"बालक के शारीरिक दंड और मानसिक उत्पीड़न का प्रतिषेध।" - (RTE अधिनियम, 2009; अध्याय 4, धारा 17)

"शिक्षकों द्वारा प्राइवेट ट्यूशन का प्रतिषेध" - (RTE अधिनियम, 2009; अध्याय 4, धारा 28)

अनुसूची में बाधा मुक्त पहुंच का जिक्र है लेकिन आज तक हमने ऐसा एक भी सरकारी स्कूल नहीं देखा है जिसके पास अपने छात्रों के लिए परिवहन की सुविधा हो। और साथ ही इसमें खेल के मैदान का भी जिक्र है। हर स्कूल के पास खेल के मैदान का होना आवश्यक है, लेकिन आजकल दिल्ली के सरकारी स्कूल में देखा जा रहा है कि मैदान की कीमत पर छात्रों की सुविधा के लिए नए भवन तैयार किए जा रहे हैं जो कि छात्रों के खेलने के अधिकार के प्रति किया जाने वाला अन्याय है। इस तरह हमने RTE, 2009 में समावेशन का स्थान-बिन्दु को खोजने का प्रयास किया। उसमें कितना सफ़ल या असफ़ल हुए वह आकलन की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही तय किया जा सकता है।



Photo credit - Aaj Tak


संदर्भ:

● RTE अधिनियम, 2009: भारत सरकार का दस्तावेज
● आर.टी.ई. क्या है? (NCERT)
● पढ़ने की दहलीज पर  (NCERT)
● भाषा शिक्षण, भाग-1 (NCERT)
● समावेशी शिक्षा दृष्टिकोण और प्रक्रियाएँ: मदन मोहन झा