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उत्तराखंड आपदा: आग को पानी का डर बना रहना चाहिए।

By Prabhakar  

उत्तराखण्ड के चमोली जिले में 7 फरवरी को भीषण आपदा के कारण उत्तराखण्ड एक बार फिर सुर्खियों में है। देवभूमि के नाम से जाना जाने वाला उत्तराखण्ड इन दिनों तबाही के मंजर देख रहा है। यदि कोई इस आपदा को “दैवीय आपदा” कहता है तो शायद वह अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ने वाला ही कहा जायेगा। यह पहली बार नहीं है जब उत्तराखण्ड ऐसे तबाही के मंजर देख रहा है। 16 जून  2013 में भी उत्तराखण्ड के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित केदारनाथ धाम में बादल फटने से पानी का सैलाब आ गया था जिसमें 5 हजार से अधिक लोग मारे गये थे और न जाने कितने लोग बेघर हो गये थे। इसके अलावा उत्तराखण्ड ने नब्बे के दशक में अनेक छोटी-बड़ी आपदायें झेली हैं।

Uttarakhand Glacier Burst
Damaged dam of the Rishi Ganga Power Project after a glacier broke off in Joshimath in Uttarakhand. (Photo | Shekhar Yadav/EPS) Via The New Indian Express

भारत निरंतर तरक्की का मार्ग ढूढ़ रहा है और उस पर चलने की कोशिश भी कर रहा है, लेकिन क्या यह कथित तरक्की आने वाले समय में उत्तरांचल या देश के अन्य अंचलों में रहने वालों के हित में होगा? यह प्रश्न विचारणीय है। यही नहीं और भी कई प्रश्न हैं जिनका उत्तर तलाशना जरूरी है वरना आये दिन हम इसी तरह आपदाओं की भेंट चढ़ते रहेंगे। प्रकृतिक आपदाओं में हमारी क्या और कितनी भूमिका है? क्या बार-बार आ रही आपदाओं के लिए हम भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जिम्मेदार हैं? इसका जवाब भी हमें ही तय करना होगा।

उत्तराखंड में आई आपदा के कई सम्भावित कारण हो सकते हैं। हिमनद यानी ग्लेशियर झील का निर्माण, जलवायु परिवर्तन, हिमस्खलन और निर्माण कार्य। ये सभी कारक आपदाओं या भारी तबाही का कारण बनते हैं। विशेषज्ञ, 7 फरवरी को चमोली जिले में हुई घटना का सबसे बड़ा कारण हिमनद (ग्लेशियर) झील का फटना बता रहे हैं जिससे बाढ़ जैसी स्थिति उतपन्न हुई इसी को ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (Glacial Lake Outburst Flood - GLOF) भी कहा गया। इसके लिए कुछ खास तकनीकी और ढांचागत वैज्ञानिक विकास करके इस तरह की समस्या से निपटा जा सकता है।

“जलवायु परिवर्तन” या “क्लाईमेट चेंज” को तमाम आपदाओं का दूसरा और सबसे बड़ा कारण कहा जाता है। इसमें जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप ग्लेशियर पिघलने लगता है। साल 2019 में जारी काठमांडू स्थित “इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट” की रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया में हिंदू कुश हिमालयी (एचकेएच) क्षेत्र में ग्लेशियरों का 36% हिस्सा 2100 के अंत तक खत्म हो जाएगा। (Source)

“पेरिस जलवायु परिवर्तन प्रतिज्ञा” में शामिल देश भारत ने अपनी तरफ से साल 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित संसाधनों से 40% संचयी बिजली स्थापित क्षमता प्राप्त करने का भी वादा किया गया है। इससे पेड़ों को भी सुरक्षित करने में मदद मिलेगी। (Source)

“पेरिस जलवायु परिवर्तन प्रतिज्ञा” में शामिल देश भारत यदि वास्तव में अपनी प्रतिज्ञा पर अमल करता है तो हम निश्चित रूप से जलवायु परिवर्तन जैसे विनाशकारी समस्या को दूर करने में सफल हो रहे होंगे।लेकिन ऐसा होता नज़र नहीं आ रहा। 11 सितम्बर 2020 को द् सक्रोल वेबसाइट पर प्रकाशित एक स्पेशल रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है कि हिमालय में मोदी सरकार द्वारा शुरू की गई “राजमार्ग परियोजना” में कई नियमों और कानूनों की अनदेखी की गई, जिसका आने वाले समय में नकारात्मक प्रभाव देखने को मिल सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद परियोजना से होने वाले नुकसान को कम करने की बात कही गई लेकिन इसके मूल में जो अवैधानिकता है उस पर चुप्पी ही रही।

कई पर्यावरणविदों का मानना है कि “राजमार्ग परियोजना” पहाड़ी के प्राकृतिक व्यवस्था में अधिक हस्तक्षेप है। विकास के नाम पर हो रहे तमाम निर्माण कार्य गभ्भीर आपदाओं का कारण बन सकते हैं। साल 2019 में बनाई गयी एक उच्च स्तरीय समिति की सिफारिश के आधार पर अदालत ने परियोजना के तहत तैयार किये जा रहे राजमार्ग की चौड़ाई को कम करने का पक्ष लिया था जो परियोजना का विरोध कर रहे पर्यावरणविदों के पक्ष में लिया गया महत्वपूर्ण फैसला था और इसे पर्यावरणविदों का समूह अपनी जीत के रूप में देख रहा था। लेकिन यह फैसला तब आया जब पहले से ही काफी नुकसान हो चुका थासमिति के दस्तावेजों में यह भी कहा गया है कि, लगभग 700 हेक्टेयर वन भूमि पहले ही परियोजना में खो चुके हैं, 47,043 पेड़ गिर गए, और धाराओं और झरनों की प्राकृतिक जल निकासी को डंपिंग द्वारा अवरुद्ध कर दिया गया है। पर्यावरणविदों द्वारा यह लगातार कहा जाता रहा है कि चारधाम परियोजना के तहत 900 किलोमीटर का राजमार्ग भारत के सबसे संवेदनशील औरनाजुक हिस्से में बनाया जा रहा है जिसका वहाँ के पारिस्थितिकी सिस्टम पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा।

4 फरवरी 2021 को समाचार वेबसाइट डीएनए में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे की अध्यक्षता वाली एक पीठ ने पश्चिम बंगाल सरकार के 500 करोड़ की लागत वाले पाँच रेलवे ओवरब्रिजों के निर्माण के लिए 356 पेड़ो को काटे जाने के खिलाफ दायर एक जनहित याचिका पर एक पेड़ के वास्तविक मूल्य का मूल्यांकन करने के लिए फरवरी माह में एक समिति गठित की थी जिसकी रिपोर्ट में यह चौकाने वाला तथ्य सामने आया कि एक वर्ष पुराने एक पेड़ की कीमत 74,500 रूपये हो सकती है।

अब प्रश्न उठता है कि यदि पेड़ो को नहीं काटा जाये और प्राकृतिक संसाधनो का इस्तेमाल न किया जाये तो विकास कैसे सम्भव होगा? ऐसे प्रश्न का सबसे सरल उत्तर है सामंजस्य और संतुलन। यह सामंजस्य और संतुलन मनुष्य और प्रकृति के नियमों और व्यवस्थाओं के बीच का है। लेकिन उत्तराखण्ड के चमोली जिले में आई आपदा को सिर्फ जलवायु परिवर्तन ( क्लाइमेट चेंज) बोलकर आगे बढ़ जाना भी शायद आने वाले समय में आपदाओं को सबसे बड़ा सबब बने। कई और भी ऐसे कारक हैं जो उत्तराखंड जैसे जगहों पर भयंकर तबाही का कारण बनते हैं। हमें उन पर भी ध्यान देने की सख्त ज़रूरत है।


हिमस्ख्लन (एवलानचेस) क्या है!

पहाड़ी इलाकों में जब काफी ऊँचाई से बर्फ का कोई टुकड़ा ढलान पर फिसलता है तब उसकी गति और शक्ति बहुत तेज हो जाती है जो कुछ देर में बड़ी आपदा का रूप ले लेती है। इसमें कभी-कभी भूकंप या मानवीय क्रियाकलाप जैसे निर्माण कार्य के दौरान विस्फोटक का इस्तेमाल आदि से उत्पन्न “कंपन” प्रमुख रूप से जिम्मेदार है।

हमारी सरकारें अक्सर नदियों पर बड़े-बड़े बांध (डैम) बनाती हैं। उत्तराखंड के जोशीमठ इलाके में हुए हादसे का एक कारण यह भी बताया गया। जोशीमठ में ग्लेशियर गिरने के कारण डैम भी टूट गया था जिससे बाढ़ जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी। अनियमित जंगलो की कटाई से हमें लगातार भूस्खलन जैसी बड़ी समस्या देखने को मिलती हैं जिसमें कई लोग अपनी जान गवाँ देते हैं।


आपदाओं को कम करने के क्या उपाय हो सकते हैं!

साल 2004 में एक फिल्म आई थी “मकबूल” जैसा नाम वैसा काम भी। लोगों में काफी स्वीकृत फिल्म भी थी। जिसमें ओम पुरी और नसीरुद्दीन शाह का एक  बहुत फेमस डायलॉग है –

"शक्ति का संतुलन बहुत जरूरी है संसार में , आग के लिए पानी का डर बने रहना चाहिए।"

हम इस डायलॉग से भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। मनुष्य के पास अदम्य साहस और शक्ति है। यानी हम आग ही हैं। यदि मनुष्य इसका सकारात्मक उपयोग करता है तो वह जीवन है और यदि नकारात्मक प्रयोग करे तो मृत्यु। इसलिए इसे पानी का डर यानी अपने नष्ट होने का भय भी बना रहना चाहिए।

हम हमेशा से विकास के लिए प्रयत्नशील रहे हैं लेकिन यदि यह विकास प्रकृति के नियमों और व्यवस्थाओं के विरूद्ध देखना चाहेंगे तो इसके भयंकर दुष्परिणाम हो सकते हैं। हमें अपने नष्ट होने का डर बना रहना चाहिए ताकि हम प्रकृति के साथ संतुलित हो सकें और प्राकृतिक संसाधनो के दोहन से बच सकें। वरना हम अपना जीवन विनाश ही देखेंगे।

 हम पता नहीं क्यों दिनों-दिन रटी-रटायी भाषा बोलने के आदी होते जा रहे हैं। अक्सर वाट्सऐप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर माँ, गौमाता, देश-राष्ट्र जैसे भावना प्रधान संदेशों को पढ़ते हैं और धड़ाधड़ लाइक, कमेंट और शेयर करना शुरू कर देते हैं। यदि कोई इन भावनाओं से आगे जाकर कुछ सोंचने और विचार करने की कोशिश करे उसे हम तुरंत खुद से अलग-थलग समझना शुरू कर देते हैं। अब आप जरा ठहरिये और सोंचिये कि क्या यह भावावेष नहीं है? जिस दिन से हम इनके उथले अर्थों में न उछलकर “माँ”, “गौमाता” और “देश-राष्ट्र” जैसे शब्दों को गंभीरता से लेना शुरू कर देगें ठीक उसी दिन से हमारा वास्तविक विकास शुरू हो जायेगा, क्यों कि माँ, गौमाता, देश इनका अस्तित्व तभी है जब तक धरती पर जीवन है।यदि  वास्तव में हमें माँ गौमाता, देश-राष्ट्र से प्रेम है तो सबसे पहले प्रकृति से प्रेम करना, उसको सुरक्षित करना। सच्चे अर्थों में इसके लिए लड़ने और लोगों को जागरूक करने की ज़रूरत हैं। हमें सबसे पहले प्रकृति का आभार और उसके प्रति सम्मान और कृतज्ञता का भाव पैदा करना होगा।


प्रकृति हमें जीवन देती है तो हमारा कर्तव्य है कि हम उसे सुरक्षित रखें।

अब यदि आपदाओं के संबंध में बात करें तो हमें पर्वतीय क्षेत्रों के पारिस्थितिक संतुलन पर भी विशेष ध्यान देना होगा ताकि हम जंगलों में रहने वाले जीव-जन्तुओं को भी बचा सकें। भारत के मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ के आदेश पर गठित समिति ने यह भी सुझाव दिया था कि राजमार्ग जैसी परियोजनाओं के लिए पेड़ों को काटने के बजाय, सरकारों को पहले यातायात और परिवहन के बुनियादी ढांचे की सुविधा के लिए मौजूदा जलमार्ग और रेलवे लाइनों का उपयोग करने जैसे विकल्पों का भी पता लगाना चाहिए।

 विकल्प रूप में अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करने वाले संगठन एवं कंपनियों पर “कार्बन टैक्स” लागू करके पर्यावरण में प्रदूषण के स्तर को कम किया जा सकता है इतना ही नहीं इससे ग्लोबल वार्मिंग के भी प्रभाव को कम करने में मदद मिलेगी। साथ ही साथ हमें नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है और इलेक्ट्रिक वाहनों को भी बढ़ावा देना होगा।